आमझरिया का आँगन: एक परिवार की कहानी
झारखंड की घुमावदार लाल मिट्टी वाली सड़कों से गुज़रकर, घने साल के जंगलों और छोटी-छोटी पहाड़ियों के बीच बसा था गाँव 'आमझरिया'। यह गाँव प्रकृति की गोद में ऐसा लगता था मानो किसी चित्रकार ने हरे और भूरे रंगों से कैनवास पर उतार दिया हो। इसी गाँव के एक छोर पर मंगल मांझी का कच्ची मिट्टी और खपरैल की छत वाला घर था। घर छोटा था, लेकिन उसका आँगन बहुत बड़ा था, जहाँ ज़िंदगी की सारी हलचल सिमटी हुई थी।
इस आँगन में एक पूरा परिवार बसता था - मंगल के बूढ़े पिता सोमा मांझी, जिन्हें सब 'दादा' कहते थे, और उनकी पत्नी फूलमती देवी, यानी 'दादी'। मंगल खुद, उसकी मेहनती पत्नी सुमित्रा, और उनके तीन बच्चे - तेरह साल का बिरसा, ग्यारह साल की मालती और आठ साल का चंचल छोटू। यह परिवार झारखंड के उन अनगिनत गरीब तबके के परिवारों में से एक था, जिनके लिए पशुपालन और खेतीबारी ही जीवन का आधार थी। जैसा कि ग्रामीण इलाकों की हकीकत है, पशुधन ही उनकी असली 'पेइंग कैपेसिटी' (paying capacity) थी, एक चलता-फिरता बैंक, जो ज़रूरत पड़ने पर काम आता था।
उनके घर के पिछवाड़े में एक छोटा सा दड़बा था, जिसमें पंद्रह-सोलह मुर्गियाँ और एक अकड़ू मुर्गा रहता था। पास ही में एक बाड़ा था, जिसमें उनकी आठ बकरियाँ जुगाली करती रहतीं। ये मुर्गियाँ और बकरियाँ सिर्फ जानवर नहीं, बल्कि परिवार की उम्मीदों का हिस्सा थीं। घर का हर सदस्य, चाहे वो बूढ़ा हो या बच्चा, इन सब कामों में लगा रहता था।
आमझरिया में सूरज उगने से पहले ही सुमित्रा और दादी फूलमती की दिनचर्या शुरू हो जाती थी। अँधेरे में ही चूल्हा जलाया जाता, जिसकी धीमी आँच पर मड़ुवा (रागी) की रोटियाँ सिंकने लगतीं और साथ में आलू की कोई सब्जी। मंगल और सोमा दादा बैलों को सानी-पानी देकर हल और बाकी औजारों के साथ खेत की ओर निकल जाते। उनकी ज़िंदगी मौसम के इशारों पर चलती थी। बारिश अच्छी हुई तो चेहरे पर मुस्कान, और अगर इंद्र देवता रूठ गए तो माथे पर चिंता की लकीरें गहरी हो जातीं।
बच्चे भी सुबह जल्दी उठते। छोटू का काम मुर्गियों को दाना देना था, तो मालती अपनी माँ के साथ मिलकर आँगन बुहारती और बकरियों को बाड़े से खोलती। बिरसा अब बड़ा हो रहा था और अपने दादा और पिता के साथ छोटे-मोटे कामों में हाथ बँटाने लगा था। स्कूल जाने से पहले वे सब मिलकर सुबह का नाश्ता करते। फिर साफ-सुथरी स्कूल ड्रेस पहनकर, अपनी-अपनी स्लेट-पट्टी लेकर वे गाँव के सरकारी स्कूल की ओर दौड़ लगा देते।
स्कूल से लौटने के बाद बस्ता एक कोने में पटककर वे फिर से घर के कामों में जुट जाते। बिरसा बकरियों को चराने के लिए पास के जंगल की ओर ले जाता, तो मालती माँ के साथ मिलकर जंगल से दातून और सूखी लकड़ियाँ बीन लाती। छोटू अपने दोस्तों के साथ कंचे खेलता या पेड़ पर चढ़कर अमिया तोड़ता, लेकिन माँ की एक आवाज़ पर दौड़ा चला आता। शाम को जब मंगल और सोमा दादा खेत से थक-हारकर लौटते, तो पूरा परिवार आँगन में जुटता। दादा कहानियाँ सुनाते, उन पुरखों की जिन्होंने जंगल को साफ करके खेत बनाए थे। उनकी कहानियों में संघर्ष भी था और गर्व भी।
उनकी खेती मौसमी थी। बारिश में वे अपने छोटे से खेत में धान रोपते, तो कभी मड़ुवा या मकई। साथ ही घर के पीछे की बाड़ी में शकरकंद, आलू, लौकी और अन्य मौसमी सब्जियों का उत्पादन होता था। यह सब्जियाँ उनके भोजन का हिस्सा बनतीं और जो बच जाता, उसे सुमित्रा पास के साप्ताहिक हाट (बाजार) में बेच आती। इसी से घर का नमक-तेल और बच्चों की पढ़ाई का छोटा-मोटा खर्चा निकलता।
जीवन की गाड़ी चल रही थी, लेकिन ग्रामीण जीवन की कठिनाइयाँ किसी बिन बुलाए मेहमान की तरह कभी भी दस्तक दे देती थीं। उस साल मानसून देर से आया। पूरा परिवार दिन-रात एक करके धान की रोपाई में लगा था। कीचड़ भरे खेतों में उनकी मेहनत पसीने के रूप में टपक रही थी। अभी फसल थोड़ी बड़ी ही हुई थी कि एक रात ज़ोरदार बारिश के साथ ओले गिरे। सुबह जब मंगल खेत पहुँचा, तो उसकी आधी फसल बर्बाद हो चुकी थी। उसकी आँखों में अँधेरा छा गया। घर आकर वो चुपचाप एक कोने में बैठ गया।
सुमित्रा ने उसका हाल समझा। उसने हिम्मत बँधाते हुए कहा, "भगवान जो करता है, अच्छे के लिए करता है। हिम्मत मत हारिए। जो बचा है, उसी को सहेजेंगे।"
लेकिन मुश्किलें यहीं खत्म नहीं हुईं। कुछ दिनों बाद, उनका सबसे मजबूत बैल 'हीरा' बीमार पड़ गया। उसने खाना-पीना छोड़ दिया। गाँव के वैद्य ने जड़ी-बूटियाँ दीं, पर कोई फायदा नहीं हुआ। शहर से डॉक्टर बुलाना ज़रूरी था, और उसके लिए चाहिए थे पैसे, जो घर में थे नहीं।
उस रात घर में किसी ने खाना नहीं खाया। आँगन में खामोशी पसरी थी। सोमा दादा ने अपने अनुभवी जीवन से हल निकाला। उन्होंने मंगल के कंधे पर हाथ रखकर कहा, "बेटा, चिंता मत कर। हमारी बकरियाँ किस दिन काम आएँगी? कल हाट ले जाकर दो बकरियाँ बेच दे। हीरा ठीक हो जाएगा तो हम दोबारा सब कुछ बना लेंगे। यही पशुधन तो हमारी ताकत है।"
यह फैसला लेना आसान नहीं था। खासकर बच्चों के लिए। मालती और छोटू उन बकरियों से बहुत प्यार करते थे। उन्होंने उनके नाम भी रखे थे - 'रानी' और 'मोती'। जब अगले दिन मंगल उन दो बकरियों को लेकर हाट जा रहा था, तो मालती की आँखों से आँसू बह रहे थे। उसने रानी की गर्दन सहलाते हुए कहा, "जल्दी वापस आना।" मंगल ने भारी मन से सिर हिलाया।
स्थानीय बाजार में बकरियों को बेचकर जो पैसे मिले, उनसे शहर से डॉक्टर आया। इलाज हुआ और कुछ दिनों में हीरा फिर से अपने पैरों पर खड़ा हो गया। परिवार ने राहत की साँस ली। इस घटना ने बच्चों को जीवन का एक महत्वपूर्ण सबक सिखाया था - यहाँ हर चीज़ एक-दूसरे से जुड़ी है, और कभी-कभी प्यारी चीज़ों को बड़ी ज़रूरतों के लिए कुर्बान करना पड़ता है।
कठिनाइयों के काले बादलों के बीच, झारखंड के त्योहार उनके जीवन में इंद्रधनुष के रंग घोल देते थे। ये त्योहार सिर्फ उत्सव नहीं, बल्कि उनकी संस्कृति, प्रकृति से उनके जुड़ाव और सामाजिक एकता का प्रतीक थे।
चैत्र के महीने में जब साल के पेड़ों पर नए फूल खिलते, तो पूरा आमझरिया सरहुल के जश्न में डूब जाता। यह प्रकृति की पूजा का पर्व था। मंगल का परिवार भी सुबह-सुबह नहा-धोकर पूजा की तैयारी करता। गाँव के 'पाहन' (पुजारी) ने सरना स्थल (पूजा स्थल) पर पूजा की। प्रकृति को धन्यवाद दिया गया। दिन में घर पर खास पकवान बने। शाम को पूरा गाँव अखाड़े में जमा हुआ। मांदर की थाप पर युवक और युवतियाँ एक-दूसरे की कमर में हाथ डालकर नाचने लगे। बिरसा और मालती भी उस भीड़ में शामिल होकर थिरक रहे थे। यह उत्सव उन्हें अपनी जड़ों से जोड़ता था।
दिवाली के ठीक बाद आने वाला सोहराई का त्योहार उनके लिए सबसे खास था, क्योंकि यह पशुधन का पर्व था। जिन जानवरों पर उनकी पूरी गृहस्थी टिकी थी, यह उनके प्रति सम्मान प्रकट करने का दिन था। मंगल और बिरसा ने मिलकर अपने दोनों बैलों और गाय को नदी में ले जाकर खूब नहलाया। सुमित्रा और मालती ने चावल को पीसकर 'ऐपन' (एक तरह का घोल) तैयार किया। उससे पूरे घर की दीवारों और आँगन में खूबसूरत चित्र बनाए गए। बैलों के सींगों को रंगा गया, उनके शरीर पर धान की बालियों के छापे लगाए गए। उन्हें मालाएँ पहनाई गईं और खास तौर पर बनाया गया पकवान खिलाया गया। उस दिन उनसे कोई काम नहीं लिया जाता था। सोमा दादा कहते थे, "ये सिर्फ जानवर नहीं, हमारे परिवार के सदस्य हैं। साल भर ये हमारी सेवा करते हैं, एक दिन हम इनकी सेवा करते हैं।"
इस त्योहार के लिए भी पैसों की ज़रूरत पड़ती थी। मंगल ने बाज़ार में कुछ बोरी धान और मड़ुवा बेचकर संसाधन जुटाए थे। इसी पैसे से बच्चों के लिए नए कपड़े और घर के लिए गुड़-तेल आया था। यह इस बात का सबूत था कि कैसे उनकी खेती और त्योहार एक-दूसरे से गुंथे हुए थे।
देश के बाकी हिस्सों की तरह वे होली और दीपावली भी मनाते थे, लेकिन अपने अंदाज़ में। दीपावली में पटाखों का शोर कम, मिट्टी के दीयों की रोशनी ज़्यादा होती थी। पूरा गाँव दीयों की रोशनी से जगमगा उठता था। होली में रासायनिक रंगों की जगह टेसू के फूलों से बने प्राकृतिक रंग होते थे। लोग एक-दूसरे के घर जाकर पुआ और दूसरे पकवान खाते और फगुआ गाते। इन त्योहारों ने उनके जीवन की नीरसता को तोड़ा और रिश्तों में नई ऊर्जा भरी।
समय बीतता गया। बच्चे बड़े हो रहे थे। बिरसा अब दसवीं कक्षा में था और पढ़ाई में बहुत होशियार था। वह अक्सर अपने दादा से खेती की नई तकनीकों के बारे में पूछता। मंगल और सुमित्रा की आँखों में अब एक नया सपना पल रहा था - वे बिरसा को खूब पढ़ाना चाहते थे। वे नहीं चाहते थे कि उनकी तरह बिरसा भी सिर्फ मौसम और किस्मत के भरोसे जिए। वे चाहते थे कि वो पढ़कर कोई अच्छी नौकरी करे, शायद कृषि वैज्ञानिक बने और फिर आमझरिया लौटकर गाँव के बाकी किसानों की भी मदद करे।
मालती भी पढ़ाई में किसी से कम नहीं थी। उसकी लिखावट बहुत सुंदर थी और वह स्कूल की हर गतिविधि में आगे रहती थी। सुमित्रा उसे अपनी परछाई के रूप में देखती थी - एक मजबूत और समझदार लड़की, जो घर भी संभाल सकती थी और दुनिया भी।
एक शाम, जब फसल कट चुकी थी और आसमान में पूरा चाँद चमक रहा था, पूरा परिवार फिर से आँगन में बैठा था। अलाव की धीमी आँच के चारों ओर बैठकर वे भविष्य की बातें कर रहे थे।
मंगल ने बिरसा से कहा, "बेटा, इस बार धान बेचकर जो पैसे आए हैं, उससे तेरे लिए शहर से विज्ञान की किताबें लाएँगे। तू मन लगाकर पढ़ना। हमारी मेहनत तभी सफल होगी।"
सोमा दादा ने मुस्कुराते हुए कहा, "हाँ बेटा, हम तो मिट्टी से सोना उगाने वाले लोग हैं। पर असली सोना तो तुम बच्चे हो। तुम्हारी पढ़ाई ही इस घर का और इस गाँव का भविष्य संवारेगी।"
बिरसा और मालती ने अपने माता-पिता और दादा-दादी की ओर देखा। उनकी आँखों में थकान थी, लेकिन चेहरे पर एक अटूट विश्वास और उम्मीद की चमक थी। वे समझ गए थे कि उनका जीवन कठिनाइयों से भरा ज़रूर है, लेकिन यह प्यार, मेहनत, परंपरा और सपनों से भी उतना ही समृद्ध है। आमझरिया का वह छोटा सा आँगन सिर्फ एक घर नहीं था, बल्कि एक पाठशाला था, जहाँ वे जीवन के सबसे बड़े सबक सीख रहे थे - संघर्ष करना, एक-दूसरे का साथ देना, अपनी जड़ों का सम्मान करना और बेहतर कल के लिए सपने देखना। हवा में मांदर की धीमी आवाज़ गूँज रही थी, जैसे कह रही हो कि ज़िंदगी का संगीत चुनौतियों के बावजूद कभी रुकता नहीं, बस अपनी लय में चलता रहता है।