प्रतिभा पलायन का षड्यंत्र: एक कहानी
24 साल का रोहन खन्ना अपनी इंजीनियरिंग की डिग्री हाथ में लिए गर्व से मुस्कुरा रहा था। उसकी आँखों में एक सपना था - भारत के रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (DRDO) में शामिल होना और ब्रह्मोस जैसी महत्वपूर्ण परियोजनाओं पर काम करना। वह उस "ताज़े ख़ून" (fresh blood) का हिस्सा बनना चाहता था जो भारत को आत्मनिर्भर बना रहा था।
उसके माता-पिता फूले नहीं समा रहे थे। उनका बेटा देश की सेवा में जा रहा था।
कुछ ही हफ्तों बाद, रोहन का चयन DRDO के लिए हो गया। घर में जश्न का माहौल था, लेकिन इस जश्न पर एक ख़बर ने खौफ का साया डाल दिया। टीवी पर ब्रेकिंग न्यूज़ चल रही थी: "DRDO के एक 30 वर्षीय युवा इंजीनियर की 'अज्ञात' कारणों से मृत्यु।" रिपोर्टर कह रहा था, "सूत्रों के अनुसार, यह 'अचानक दिल का दौरा' पड़ने का मामला है। यह हाल के वर्षों में युवा वैज्ञानिकों के साथ हुई कई अप्राकृतिक मौतों की श्रृंखला में नवीनतम है।"
रोहन के घर में अजीब सी खामोशी छा गई। उसकी माँ ने डरते हुए कहा, "बेटा, ये सब ठीक नहीं है। आजकल कितना अजीब माहौल हो गया है।"
रोहन के पिता, जो इतिहास के शिक्षक थे, ने चिंता से अपना चश्मा उतारा। "यह कोई नई बात नहीं है, रोहन," उन्होंने धीमी आवाज़ में कहा। "यह पैटर्न 1960 के दशक से चल रहा है। क्या तुम्हें होमी जहांगीर भाभा के बारे में याद है? भारत के परमाणु कार्यक्रम के जनक। उनका विमान रहस्यमय परिस्थितियों में क्रैश हो गया था, ठीक तब जब वह भारत को परमाणु शक्ति बनाने के करीब थे।"
रोहन ने सिर हिलाया। "और विक्रम साराभाई?" उसने जोड़ा। "हमारे अंतरिक्ष कार्यक्रम के पिता। वह भी एक होटल के कमरे में 'अज्ञात' कारणों से मृत पाए गए थे। कोई स्वास्थ्य समस्या नहीं, कुछ नहीं।"
"हाँ," पिता ने जारी रखा, "और यह सिर्फ बड़े नाम नहीं हैं। मैंने एक आरटीआई रिपोर्ट के बारे में पढ़ा था जिसमें बताया गया था कि 1995 से 2016 के बीच, ISRO में 680 से अधिक और BARC में 380 से अधिक वैज्ञानिक 'अस्पष्ट कारणों' से मारे गए - कुछ आत्महत्याएं जिन्हें आत्महत्या मानना मुश्किल था, कुछ अजीब दुर्घटनाएं, और कुछ को तो ज़हर दिया गया।"
यह जानकारी हवा में एक भारीपन घोल गई। रोहन की माँ की आँखें भर आईं। "हमें तुम्हें इन सबमें नहीं भेजना चाहिए," उन्होंने लगभग फुसफुसाते हुए कहा।
अगले दिन, रोहन को एक प्रमुख अमेरिकी एयरोस्पेस कंपनी से शानदार नौकरी का प्रस्ताव मिला। पैकेज DRDO से दस गुना ज़्यादा था। लिंक्डइन पर एक विदेशी रिक्रूटर ने उसे सन्देश भेजा: "रोहन, आपकी प्रतिभा की यहाँ बहुत कद्र है। हम आपकी सुरक्षा और मानसिक शांति को प्राथमिकता देते हैं। ईमानदारी से कहूँ तो, यहाँ का माहौल 'स्थिर' और 'सुरक्षित' है। आप ख़बरों में तो पढ़ ही रहे होंगे कि भारत में संवेदनशील परियोजनाओं पर काम करना कितना तनावपूर्ण और... अप्रत्याशित हो सकता है।"
"अंप्रत्याशित"। यह शब्द रोहन के दिमाग में गूंज गया। यह एक साधारण नौकरी का प्रस्ताव नहीं था; यह एक मनोवैज्ञानिक खेल था।
उसी शाम, रोहन के पिता, जो हमेशा उसे देश सेवा के लिए प्रेरित करते थे, उसके पास बैठे। "बेटा, तुम्हारी माँ सही कह रही है। हम हर रात इस डर में नहीं जी सकते कि कोई फ़ोन आएगा। होमी भाभा और विक्रम साराभाई के साथ जो हुआ, और अब जो इन युवा इंजीनियरों के साथ हो रहा है... यह एक सोची-समझी रणनीति लगती है। शायद तुम्हें विदेशी प्रस्ताव के बारे में सोचना चाहिए। हम तुम्हें खोने का जोखिम नहीं उठा सकते।"
रोहन हैरान रह गया। यह वही डर था जिसका जिक्र उस टीवी रिपोर्ट के बाद हो रहा था। उसके कुछ दोस्त, जो ISRO और BARC में जाने का सपना देखते थे, अब अमेरिका और जर्मनी में नौकरियों के लिए आवेदन कर रहे थे। उन्होंने भी उन "अस्पष्ट मौतों" (unexplained deaths) के बारे में सुना था।
रोहन को समझ आ गया कि यह सिर्फ़ कुछ वैज्ञानिकों की मौत का मामला नहीं था। यह एक सोची-समझी रणनीति थी। विदेशी एजेंसियां जानती थीं कि वे भारत के मिसाइल कार्यक्रम को सीधे तौर पर नहीं रोक सकतीं, इसलिए उन्होंने इसकी नींव पर हमला किया - उसके युवा इंजीनियर और वैज्ञानिक।
उनका मकसद एक या दो वैज्ञानिकों को खत्म करना नहीं था, बल्कि हज़ारों प्रतिभाशाली युवाओं के मन में डर पैदा करना था। वे माता-पिता के मनोविज्ञान से खेल रहे थे, ताकि वे खुद अपने बच्चों को इन महत्वपूर्ण संस्थानों में शामिल होने से रोकें।
यह "प्रतिभा पलायन" (Brain Drain) कराने का एक नया और घातक तरीका था। यदि भारत का सबसे प्रतिभाशाली "ताज़ा ख़ून" देश छोड़कर चला जाता, तो ब्रह्मोस जैसी महत्वपूर्ण परियोजनाएं खुद-ब-खुद सालों पीछे चली जातीं और भारत हमेशा की तरह विदेशी हथियारों पर निर्भर रहता।
रोहन ने अपने पिता की ओर देखा और शांति से कहा, "पापा, अगर होमी भाभा और विक्रम साराभाई भी उस समय डर गए होते, तो आज हम यहाँ नहीं होते। वे हमें डराकर ही तो जीतना चाहते हैं। अगर आज मैं डर गया, तो वे अपने मकसद में कामयाब हो जाएँगे। मैं उन अज्ञात नायकों की विरासत को डर की वजह से नहीं छोड़ सकता जिन्होंने देश के लिए अपनी जान दे दी।"
अगले सोमवार, रोहन खन्ना ने डर के उस माहौल को चीरते हुए DRDO के गेट से अंदर कदम रखा। वह जानता था कि यह सिर्फ़ एक नौकरी नहीं थी, यह उस मनोवैज्ञानिक युद्ध के खिलाफ भारत का जवाब था।